अंतर्राष्ट्रीय आदिवासी दिवस पर नर्मदा बचाओ आंदोलन की चुनौती।
आदिवासी दिवस मनाने से नहीं, ‘पेसा‘ कानून का पालन करने से ही बचोगे ‘आदिवासी विरोधी’ दूषण से।
अंतर्राष्ट्रीय आदिवासी दिवस पर कई मंत्री, मुख्यमंत्री, अधिकारी मना रहे हैं यह दिवस, मानो कोई त्योहार हो। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी धार जिलास्थल पर पधारे होंगे। इन सम्मेलनों, महोत्सवों पर लाखो रूपये खर्च करने वाले, आदिवासियों के प्रेणादायी स्वतंत्रता सेनानियों के प्रतीक और पुतले खड़े करने वाले ‘आदिवासी स्वशासन और सुशासन’ जो कि संवैधानिक अधिकार है, वही नकार और धिक्कार रहे है, यह है विरोधाभास।
संविधान के संभाग IX में स्पष्ट रूप से कहां गया है कि संविधान के अन्य किसी भी अनुच्छेद व प्रावधान के बावजूद आदिवासियेां के लिए स्वतंत्र व्यवस्था रहेगी। अनुच्छेद 243-एन में यह भी स्पष्ट है कि किसी भी राज्य में कोई भी कानून 1992 में लाये गये संविधान में 73 वे संशोधन से विसंगत होकर, वह प्रचलित हो, तो भी वह 1साल से आगे याने 1993 के बाद नहीं चल सकता था।
73 वें संशोधन के ही बाद 1996 में लाया गया पेसा पंचायतराज विस्तार अधिनियम, जिसका राज्य स्तरीय रूप 1993 के पंचायत राज अधिनियम से जोड़ा हुआ हुआ माना गया है, आज प्रचलित है। लेकिन इस कानून का, उसके आधार पर आदिवासी ग्रामसभा को याने सभी गांववासियेां को तथा पंचायत को मिले विशेष अधिकारों को प्रदान करने के बदले, उनका हनन हो रहा है, इस कानून को ठंडे बस्ते में रखना ही नहीं कुचलना जारी है।
इस कानून के तहत हर आदिवासी को, अपने ग्रामसभा के द्वारा गांव के प्राकृतिक संसाधन पर अधिकार ही नहीं, तो उन संसाधनों के साथ विकास नियोजन का भी जो अधिकार प्राप्त है, उसे ही ठुकरा रही है, म0प्र0 सहित करीबन हर राज्य की शासन। इन संसाधनों की भरसक लूट तथा विनाशकारी दोहर होते हुए, ग्रामसभा की सलाह सूचन (याने एक प्रकार से सहमति) के बाद ही भूअर्जन एवं पुनर्वास हो सकता है, इस न्यूनतम शर्त को भी न मानने के कारण ही उनकी जल, जंगल, जमीन छीनी जा रही है। उस जमीन के नीचे का भूजल हो या खनिज, अब्जावधी रूपयों की संपदा शासन मानमानी रूप से, गांव/गांवसभा या पंचायत का भी हम नकारकर, पंूजीपति, उद्योगपतियों को बहाल कर रही है। पेसा की नियमावली भी म0प्र0 में तो बनायी ही नहीं गयी है।
झारखंड के आदिवासी-दलित मेहनतकशों की भूख से मौत, नंदुरबार या मेलघाट (महाराष्ट्र) के आदिवासियों का कुपोषण या देशभर के आदिवासियों का विस्थापन इसी का नतीजा है कि आदिवासीयों के संसाधनों का, उससे विकास का लाभ उन्हें नही मिलता, न ही दिया जाता है।
नर्मदा जैसी नदी घाटी के पूरे संसाधन, नदी, पानी, रेत, खेती, पहाड़ भी उन्ही की पीढियों पुरानी जायदाद होते हुए लुटने वालो से न ही उन्हें पूछा गया, न बताया गया। नर्मदा ट्रिब्यूनल ने 10 सालों की जांच में उनके एक पक्ष की भी मुलाकात नहीं ली। आज भी पहाडी गांव में भी कई आदिवासी घर तोड़ने पर भी घरप्लाट नही मिलने की स्थिति में हैं। कईयों को जमीन मिलना बाकी है और बांध पूरा करने का झूठा दावा जारी है। क्या यह आदिवासीयों के हित में है।
इस स्थिति में लड़लड़कर 33 सालों के संघर्ष के द्वारा ही आदिवासियों ने अपना जमीन का, पुनर्वास का हक लिया। लेकिन आज भी कुछ हजार आदिवासियों का पूरा पुनर्वास न होते हुए उन्हें डूबाने के लिए शासन झूठे दावे, रिपोर्ट, शपथपत्र भी पेश करती है। पेसा कानून का पालन न पुनर्वास के न ही शराबबंदी के संबंध में हो रहा है। वन अधिकार कानून भी बड़वानी, अलिराजपुर, नन्दुरबार के नदी किनारे के एक-एक गांव के लिये पालन नही हुआ है। तो क्या म0प्र0 या अन्य किसी शासन को आदिवासी दिवस का ढोल मात्र बजाने का अधिकार है? जवाब चाहिए।
रामेश्वर भीलाला, कैलाश अवास्या, खेमसिंग पावरा, सियाराम पाडवी,
नूरजी वसावे, राहुल यादव, चेतन सालवे, मेधा पाटकर
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